जिसका नाम प्रेम है वही तो ईश्वर है, जिससे आप अलग नहीं हैं, जो आप से अलग नहीं है

डा. श्वेता दीप्ति

सीधी सहज भाषा में मैं कहूँ तो हमारे अन्दर जो जिज्ञासा है, वही हमें ईश्वर के करीब लाता है । अक्सर जब मैं अपने आस पास देखती हूँ । ये नदियाँ, पहाड़, पेड पौधे, सागर, झरने, मरुस्थल, पक्षी जानवर, मनमोहक तितलियाँ तब एक सवाल उठता है दिल में कि इसे किसने बनाया है । वो कौन सी अनदेखी सत्ता है जो इसे संचालित करती है । ये चाँद, ये सूरज, ये तारे ये पूरा ब्रह्माण्ड किसने बनाया । सूरज कैसे आता है और फिर कहाँ जाता है चाँद सितारों से सजा आकाश किसने सँवारा है । हालाँकि विज्ञान ने इन सभी सवालों को वैज्ञानिकता से सिद्ध किया है बावजूद इसके हमारी संस्कृति प्रकृति के हर आलम्बन को पूजती है और कण-कण में अदृश्य ईश्वर की सत्ता मानती है ।प्रस्तुत लेख में कुछ वैदिक ग्रंथों के माध्यम से ईश्वर सम्बन्धी धारणाओं को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया है ।

ईश्वर विश्वास पर ही मानव प्रगति का इतिहास टिका हुआ है । जब यह डगमगा जाता है तो व्यक्ति इधर-उधर हाथ पाँव फेंकता विक्षुब्ध मनः स्थिति को प्राप्त होता दिखाई देता है ॥ ईश्वर चेतना की वह शक्ति है जो ब्रह्माण्ड के भीतर और बाहर जो कुछ है, उस सब में संव्याप्त है ॥ उसके अगणित क्रिया कलाप हैं जिनमें एक कार्य इस प्रकृति का विश्व व्यवस्था का संचालन भी है ॥ संचालक होते हुए भी वह दिखाई नहीं देता क्योंकि वह सर्वव्यापी सर्वनियंत्रक है ॥ इसी गुत्थी के कारण कि वह दिखाई क्यों नहीं देता, एक प्रश्न साधारण मानव के मन में उठता है ईश्वर कौन है, कहाँ है, कैसा है ??

यह पूरी सृष्टि एक ऐसे तत्व से बनी है जिसका नाम है प्रेम, और यही तो ईश्वर है ! आप ईश्वर से अलग नहीं हैं। ईश्वर के बाहर कुछ भी नहीं है । सब कुछ ईश्वर के अंदर ही स्थापित है।  ये अच्छा, बुरा, सही, गलत और इन सबसे परे है। सुख दुःख ये सब कोई मायने नहीं रखता। केवल ‘एक’ है जिसका अस्तित्व है, वह ‘एक’ पूणर् है, और यदि आप उसे कोई नाम देना चाहें तो ईश्वर कह सकते हैं ।

मात्र सृष्टि संचालन ही ईश्वर का काम नहीं है चूंकि हमारा संबंध उसके साथ इसी सीमा तक है, अपनी मान्यता यही है कि वह इसी क्रिया-प्रक्रिया में निरत रहता होगा, अतः उसे दिखाई भी देना चाहिए ॥ मनुष्य की यह आकांक्षा एक बाल कौतुक ही कही जानी चाहिए क्योंकि अचिन्त्य, अगोचर, अगम्य परमात्मा-पर ब्रह्म-ब्राह्मी चेतना के रूप में अपने ऐश्वर्यशाली रूप में सारे ब्रह्माण्ड में, इको सिस्टम के कण-कण में संव्याप्त है ॥

न्याय वैशेषि कादि शास्त्रों का प्रायः यही अभिप्राय है— एको विभुः सर्वविद् एकबुद्धिसमाश्रयः। शाश्वत ईश्वराख्यः। प्रमाणमिष्टो जगतो विधाता स्वर्गा पवर्गादि ।

पातंजल योगशास्त्र में भी ईश्वर परमगुरु या विश्वगुरु के रूप में माना गया है । इस मत में जीवों के लिए तारक ज्ञान प्रदाता ईश्वर ही है । परन्तु जगत् का सृष्टिकर्ता वह नहीं है । इस मत में सृष्टि आदि व्यापार प्रकृतिपुरुष के संयोग से स्वभावतः होते हैं । ईश्वर की उपाधि प्रकृष्ट सत्व है ।

मीमांसक ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते । वे भेद को अपौरुषेय मानते हैं और जगत् की सामूहिक सृष्टि तथा प्रलय भी स्वीकार नहीं करते ।

वेदान्त में ईश्वर सगुण ब्रह्म का ही नामांतर है । ब्रह्म विशुद्ध चिदानंदस्वरूप निरुपाधि तथा निर्गुण है । मायोपहित दशा में ही चैतन्य को ईश्वर कहा जाता है । चैतन्य का अविद्या से योग होने पर वह जीव हो जाता है । वेदांत में विभिन्न दृष्टिकोणों के अनुसार ब्रह्म, ईश्वर तथा जीवतत्व के विषय में अवच्छेदवाद, प्रतिबिंबवाद, आभासवाद आदि मत स्वीकार किए गए हैं ।  उनके अनुसार ईश्वरकल्पना में भी भेद हैं ।

शैव मत में शिव को नित्यसिद्ध ईश्वर या महेश्वर कहा जाता है । वह स्वरूपतः चिदात्मक हैं और चित्-शक्ति-संपन्न हैं । उनमें सब शक्तियाँ निहित हैं । बिंदुरूप माया को उपादान रूप में ग्रहण कर शिव शुद्ध जगत् का निर्माण करते हैं । इसमें साक्षात्कर्तृत्व ईश्वर का ही है । तदुपरांत शिव माया के उपादान से अशुद्ध जगत् की रचना करते हैं, किंतु उसकी रचना साक्षात् उनके द्वारा नहीं होती, बल्कि अनन्त आदि विद्येश्वरों द्वारा परम्परा से होती है ।

वैष्णव संप्रदाय के रामानुज मत में ईश्वर चित् तथा अचित् दो तत्वों से विशिष्ट है । ईश्वर अंगी है और चित् तथा अचित् उसके अंग हैं । दोनों ही नित्य हैं ।

श्रीसंप्रदाय के अनुसार ईश्वर के पाँच रूप हैं पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और अर्चावतार। परमात्मा के द्वारा माया शक्ति में ईक्षण करने पर माया से जगत् की उत्पत्ति होती है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्व वस्तुतः परमात्मा के ही चार रूप हैं ।

गीता के अनुसार ईश्वर पुरुषोत्तम या उत्तम पुरुष कहा जाता है । वही परमात्मा है । क्षर और अक्षर पुरुषों से वह श्रेष्ठ है । उसके परमधाम में जिसकी गति होती है उसका फिर प्रत्यावर्तन नहीं होता । वह धाम स्वयंप्रकाश है । वहाँ चंद्र, सूर्य आदि का प्रकाश काम नहीं देता । सब भूतों के हृदय में वह परमेश्वर स्थित है और वही नियामक है।

प्राचीन काल से ही ईश्वरतत्व के विषय में विभिन्न ग्रंथों की रचना होती आई है। उनमें से विचारदृष्टि से श्रेष्ठ ग्रंथों में उदयनाचार्य की न्यायकुसुमांजलि है। इस ग्रंथ में पाँच स्तवक या विभाग हैं। इसमें युक्तियों के साथ ईश्वर की सत्ता प्रमाणित की गई है। चार्वाक, मीमांसक, जैन तथा बौद्ध ये सभी संप्रदाय ईश्वरतत्व को नहीं मानते  । न्यायकुसुमांजलि में नैयायिक दृष्टिकोण के अनुसार उक्त दर्शनों की विरोधी युक्तियों का खंडन किया गया है। उदयन के बाद गंगेशोपाध्याय ने भी तत्वचिंतामणि में ईश्वरानुमान के विषय में आलोचना की है। इसके अनंतर हरिदास तर्कवागीश, महादेव पुणतांबेकर आदि ने ईश्वरवाद पर छोटी छोटी पुस्तकें लिखी हैं।

हिन्दू धर्म के ग्रंथ वेद में ईश्वर को ‘ब्रह्म’ कहा गया है। ब्रह्म को प्रणव, सच्चिदानंद, परब्रह्म, ईश्वर, परमेश्वर और परमात्मा भी कहा जाता है। इसी कारण हिन्दू धर्म को ‘ब्रह्मवादी’ धर्म भी कहा जाता है। इस ब्रह्म के बारे में उपनिषद (वेदांत) और गीता में सारतत्व समझाया गया है। उपनिषद और गीता के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति को ‘ब्रह्मसूत्र’ का अध्ययन करना चाहिए।

दुनिया के सभी धर्मों से अलग है हिन्दू धर्म में ईश्वर की धारणा, जो कि बिलकुल भी सतही नहीं है। यह ऋषियों का अनुभूत सत्य है। जांचा-परखा मार्ग है। ऋषियों ने ईश्वर की कल्पना नहीं की बल्कि उसका अनुभव किया और जाना . ईश्वर वह है जो समय और स्थान से प्रभावित नहीं होता है।

*ईश्‍वर न धरती पर है और न आकाश में लेकिन वह सर्वत्र होकर भी अकेला है। हम कह सकते हैं कि

*सृष्टि से पहले भी वही था और सृष्टि के बाद भी वही एकमात्र होगा।ईश्वर कहाँ नहीं है ।

*ईश्‍वर सभी की आत्मा में है और सभी की आत्मा ही ईश्वर है, लेकिन वह कभी किसी को महसूस नहीं होता। उसके लिए आत्मवान होना जरूरी है।

*वह दूर से दूर और पास से भी पास है।

*परमात्मा सर्वव्यापक है लेकिन माया के आवरण से परमात्मा की प्रतीति नहीं होती। ऋग्वेद में कहा गया है

*जो भूत, भवि‍ष्‍य और सबमें व्‍यापक है, जो दि‍व्‍यलोक का भी अधि‍ष्‍ठाता है, उस ब्रह्म परमेश्वर को प्रणाम है ।ईश्‍वर शुद्ध प्रकाश स्वरूप है, लेकिन वह प्रकाश नहीं है।ईश्‍वर केवल एक है, उसके जैसा कोई दूसरा नहीं।

*क्लेश, कर्म, विपाक और आशय- इन चारों से अपरामष्‍ट- जो संबंधित नहीं है वही पुरुष विशेष ईश्वर है। अर्थात जो बंधन में है और जो मुक्त हो गया है वह ईश्वर नहीं है, बल्कि ईश्वर न कभी बंधन में था, न है और न रहेगा।ये कहें कि ईश्‍वर निराकार, निर्विकार और निर्विकल्प है। उसकी कोई मूर्ति नहीं बनाई जा सकती।

क्योंकि ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी ईश्वर नहीं हैं। ईशावास्योपनिषद में कहा गया है कि

*’वह परब्रह्म (ईश्वर) एकात्म भाव से और एक मन से तीव्र गति वाले हैं। वे सबके आदि (प्रारंभ) तथा सबके जानने वाले हैं। इन परमात्मा को देवगण भी नहीं जान सके। वे अन्य गतिवानों को स्वयं स्थिर रखते हुए भी अतिक्रमण करते हैं। उनकी शक्ति से ही वायु, जल वर्षण आदि क्रियाएं होती हैं। वे चलते हैं, स्थिर भी हैं; वे दूर से दूर और निकट से निकट हैं। वे इस संपूर्ण विश्‍व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्‍व के बाहर भी हैं।’।।4,5।।-ईशावास्योपनिषद

*ईश्‍वर का कोई संदेशवाहक नहीं। संदेशवाहक देवी और देवताओं के होते हैं। ऋषियों ने ईश्वर के वचनों को सुना और उसकी स्तुति की जिसे वेद कहा गया। वे ईश्‍वरीय वचन है जिनमें आदेश, संदेश या आज्ञा नहीं है।>  हम यह सोच सकते हैं कि आखिर ईश्वर करते क्या हैं । दरअसल *ब्रह्म या ईश्वर न न्याय करता है और न अन्याय करता है, लेकिन जो उसका ध्यान करते हैं उनके साथ कभी अन्याय नहीं होता।

*ईश्‍वर किसी को भयभीत करने वाला और न ही प्रेम करने वाला है। जो उससे प्रेम करते हैं वे स्वत: ही उसके सान्निध्य में होकर सुरक्षित हो जाते हैं। जो उससे भयभीत रहते हैं, वे अपने पापों के कारण ही भयभीत रहते हैं।

*ईश्वर न आज्ञा देने वाला है और न ही उपदेश देने वाला। उपदेश और आज्ञा देने वाले ईश्वर या सत्य के मार्ग पर नहीं हैं।

*ईश्वर न सजा देता है और न ही पुरस्कार। वह न स्वर्ग में भेजता है और न नर्क में। जो लोग उसका ध्यान करते हैं और सभी को ईश्वरमय समझते हैं, वे हर तरह की सजा-पुरस्कार और स्वर्ग-नर्क से परे होकर शांति पाते हैं। *ईश्वर न सृष्टि रचयिता है और न सृष्टि का रखवाला। उसके होने से ही सृष्टि हुई और उसके होने से ही सूर्य, तारे, पृथ्वी तथा दूसरे ग्रह-नक्षत्र काबू में रहते हैं। उनके काबू में रहने से ही प्राणियों का अस्तित्व विद्यमान है, तो वह ऐसा होने पर भी ऐसा नहीं है। अर्थात उसकी उपस्थिति से ही सबकुछ है और उसकी इच्छा से ही सभी की सुरक्षा है और उसकी इच्‍छा से ही विध्वंस है। *जड़ से बढ़कर प्राण है, प्राण से बढ़कर मन। मन से बढ़कर बुद्धि है और बुद्धि से बढ़कर विवेक। विवेक से बढ़कर चेतना है और चेतना से बढ़कर आत्मा। आत्मा ही सभी को धारण करने वाली है और इस आत्मा को धारण करने वाला परमात्मा है।ईश्वर आत्मा में है । तैत्तिरीयोपनिषद में कहा गया है कि

*धरती से बढ़कर जल है, जल से बढ़कर अग्नि। अग्नि से बढ़कर वायु है और वायु से बढ़कर आकाश। आकाश से बढ़कर महत् है और महत् से बढ़कर आत्मा। आत्मा से बढ़कर वह एकमात्र परमात्मा ही सभी को धारण करने वाला है।’उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्‍ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।’।। 2-8-1।।-तैत्तिरीयोपनिषद

*यह आत्‍मा ही ब्रह्म है। ब्रह्मस्वरूप होने और ब्रह्म में से ही प्रस्फुटित होने के कारण आत्मा को भी ब्रह्म (ईश्वर) तुल्य माना गया है।

*संसार प्राकृतिक शक्तियों का खेल है और प्राकृतिक शक्तियां चित्त शक्तियों का खेल है और चित्त की शक्तियां आत्मा का खेल है और आत्माएं ईश्‍वर के होने से ही विद्यमान हैं। अब यह सवाल है कि ईश्वर को कौन पा सकता है । तो

*स्वयं को जानने वाला ही ईश्वर को जान सकता है।

*ईश्वर तक पहुंचने के दो ही रास्ते हैं- शरणागति और ध्‍यान। ये दो मार्ग अभ्यास और जाग्रति से हासिल किए जा सकते हैं।

*’अहम् ब्रह्मास्मि’ अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं, ‘तत्वस्मी’ अर्थात तू ही ब्रह्म है और ‘एकमेव ब्रह्म सत्य’ अर्थात वह ब्रह्म ही सत्य है। इसका मतलब वह ब्रह्म मुझ में, तुझ में और सर्वत्र होकर भी अकेला है।

*शरीर में रहकर आत्मा जाग्रत, स्वप्न और सु‍षुप्ति का अनुभव करती है। इस दौरान वह मस्तिष्क की क्षमता से अनावश्यक और निरंतर चलने वाले विचारों से प्रभावित होती रहती है। मन के भावों और गति से सुख और दुख का अनुभव करती रहती है, लेकिन वह कभी खुद को देखने और समझने का प्रयास नहीं करती। जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति। उक्त तीन अवस्थाओं से बाहर निकलने की विधि का नाम ही है हिन्दू धर्म है।

*यह आत्‍मा ही सब कुछ है अर्थात समस्त वस्तु, विचार, भाव और सिद्धांतों से बढ़कर आत्मा है। आत्मा को जानने से ही परमात्मा को जाना जा सकता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।

इन सभी तथ्यों को मिलाकर निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है –

एकवणर्ं यथा दुग्धं भिन्नवणर्ास’ धेनुष’ .

तथैव धर्मवैचित्त्यं तत्त्वमेकं परं स्मृतम् ..

आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् .

सर्व देव नमस्कारः केशवं प्रति गच्छति ..

अर्थात् जिस प्रकार विविध रंग रूप की गायें एक ही रंग का (सफेद) दूध देती है, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्त्व की सीख देते है . आकाश से गिरा जल विविध नदियों के माध्यम से अंतिमतः सागर से जा मिलता है उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुआ नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है .सारांशतः हम कह सकते हैं कि सभी पंथ ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बताते हैं, सदाचार सिखाते हैं, नैतिकता का पाठ पढ़ाते हैं और ईश्वर एक हैं यह सीख देते हैं हाँ इनकी पद्धतियाँ अलग होती हैं .जिसके अनुसार अनुयायी  अपने अपने पद्धतियों के अनुसार ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग तलाशते हैं ।

संदर्भ : वेद, उपनिषद और गीता

Source : https://www.himalini.com/189485/10/23/11/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%259c%25e0%25a4%25bf%25e0%25a4%25b8%25e0%25a4%2595%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%25a8%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25ae-%25e0%25a4%25aa%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b0%25e0%25a5%2587%25e0%25a4%25ae-%25e0%25a4%25b9%25e0%25a5%2588-%25e0%25a4%25b5%25e0%25a4%25b9%25e0%25a5%2580-%25e0%25a4%25a4%25e0%25a5%258b-%25e0%25a4%2588