राजनीतिः एक असफल प्रयोग : अजय कुमार झा

अजय कुमार झा, हिमालिनी अंक सितम्बर, 024। हजारों वर्षों से हम राजनीति को जीवन और जगत के लिए अनिवार्य तत्व के रूप में मान्यता देते आ रहे हैं । जबकि इसका परिणाम वैश्विक भीषण नर संहार और प्राकृतिक संपदाओं का दोहन कर आपदाओं को निमंत्रण देना ही रहा है । अबतक जो विकल्प खोजे जा रहे हैं वह सब के सब राजनीति के कुण्ड से ही निकाला जा रहा है । होना तो यह चाहिए कि राजनीति विज्ञान के अधीन रहता । विज्ञान के अनुसार चलता । धर्म वह है, जिसे हम जीवन और प्रकृति के समग्र पक्ष को पोषण और संवर्धन करने के लिए व्यवहार में धारण करते हैं । अतः धर्म के आधारभूत पक्ष भी विज्ञान द्वारा प्रशोधित ही होने चाहिए थे । विज्ञान का सीधा अर्थ है, विशेष ज्ञान तथा अनुसंधान द्वारा प्रतिपादित विचार, सिद्धांत या कहें जीवन दर्शन । विगत तीन हजार वर्ष से अबतक हमने राजनीति को सर्वोपरि मानकर उसके सिद्धांतों को जीवन व्यवहार में प्रयोग करके देख लिया, राजनीति ने हमें हत्या, हिंसा, षडयंत्र, धोखाधड़ी, जातीय, धार्मिक, और प्रांतीय बटवारा तथा दंगा और युद्ध के अलावा और कुछ भी नहीं दिया । विहंगम दृष्टि से देखा जाए तो यह÷राजनीति पूर्णतः असफल रही है । राजनीति मानवता और प्रकृति के संरक्षण तथा संपोषण के लिए कुछ भी नहीं कर पायी है । जबकि विध्वंस के लिए दिनरात लगी रहती है ।

अतः अब हमें विज्ञान का प्रयोग करके देखना है । एक मौका विज्ञान को भी दिया जाना चाहिए, क्योंकि अपने सैकड़ों–हजÞारों सालों के पूरे इतिहास में मनुष्य ने जितना विकास किया है उससे कहीं अधिक विकास विज्ञान ने तीन सौ सालों में करके दिखा दिया है । लेकिन, विश्व के सारे वैज्ञानिकों का एक ही देश, धर्म, संस्कृति, लक्ष्य और भाव होना चाहिए । न कोई रूसी वैज्ञानिक हो, न अमरीकी वैज्ञानिक हो, न हिंदू वैज्ञानिक हो, न ईसाई वैज्ञानिक हो । इस विश्व वैज्ञानिक एकेडमी में विश्व के सभी प्रतिभाशाली होंगे । जिनका लक्ष्य मानव कल्याण और आधुनिकतम उपलब्धियों को प्राप्त करना रहेगा । किसी आइंस्टीन को हिटलर के धमांधता और क्रूर मतांधता के कारण अमेरिकी सरकार से आश्रय के लिए आग्रह नहीं करना पड़े । और उच्च कोटि के बुद्धिमान व्यक्तियों के द्वारा लाखों साधारण मनुष्यों के जीवन नष्ट करने के लिए एटम बम का भंडार नहीं लगाना पड़े ।
राजनीतिकों के द्वारा वैज्ञानिक लगायत सारे तंत्रों और प्रणालियों को इस तरह मरोड़ दिया गया है कि अब वैज्ञानिकों के लिए व्यक्तिगत रूप से अनुसंधान कार्य का अंजाम देना संभव नहीं है । उन्हें राजनीतिकों के प्रबल सहारे की जरूरत है । उनके अन्वेषण की योजनाएं इतनी महंगी हो गई हैं कि सिर्फ उच्च कोटि के संपन्न राष्ट्रों की सरकारें ही उनका खर्चा उठा सकती हैं । तो वैज्ञानिक अनजाने ही राजनीतिकों के हाथों का शिकार बन गया है । और इन दुष्टों ने राजनीति के नाम पर उनकी बुद्धिमत्ता को मानवता के समूल विनाश के लिए प्रयोग किया है । जिसका ज्वलंत उदाहरण आज रूस और यूक्रेन बीच के युद्ध, इजराइल और इस्लामिक देशों के बीच के युद्ध, सीरिया, टर्की, अफगानिस्तान, पाकिस्तान – भारत के बीच होते आ रहे खूनी खेल । ये सब दुष्ट राजनीतिज्ञों द्वारा विश्व के उच्च कोटि के चेतना के साथ किया जा रहा षडयंत्र युक्त दानवी खेल ही है । और इनसे विश्व सभ्यता को बचाना आज के मानव के लिए विकल्प रहित लक्ष्य है ।

शकुनी चरित्र राजनीतिकों के द्वारा सृजित षडयंत्र का जाल इतना सघन और मजबूत है कि उसे तोड़ना किसी एक की तो बात छोड़ दें किसी एक राष्ट्र के लिए भी असंभव है । अन्यथा सनातन के प्रांगण में पल्लवित, पुष्पित और संस्कारित भारत इतने वर्षो तक गुलामी के सिकंजो में जकड़ने को बाध्य नहीं होता । राजनीतिकों द्वारा प्रचारित तथाकथित राष्ट्रवाद, समाजवाद, कम्युनिज्म, फॉसिज्म, धर्मांधता और पूंजीवाद; ये सब के सब ऐसे जहर हैं जिससे वैज्ञानिक दृष्टिकोण के उच्च स्तरीय चेतना भी नहीं बच पा रहे हैं । सबके सब इन वादों के नायकों का गुलामी स्वीकार करने को लाचार हैं । क्योंकि वह स्वतंत्र अन्वेषक नहीं रहा, अब वह किसी विशेष राजनीतिक विचारधारा का हिस्सा बन गया है वह श्रम करता है, आविष्कार करता है, लेकिन अपने ही आविष्कार पर उसका कोई नियंत्रण नहीं होता । नियंत्रण राजनीतिकों के हाथों में है । वह किस दिशा में काम करे, इसका निर्देश भी राजनीतिक ही देते हैं । अन्यथा वे किसी भी योजना को न आर्थिक सहायता देंगे और नहीं भौतिक सुरक्षा ही ।

सर्जक चेतना को क्षुद्र मानसिकता के राजनयिकों के उपरोक्त पराधीनता को सहज ही स्वीकार कर लेने के पीछे जो सबसे बड़ा कारण है; और जिससे स्वयं वैज्ञानिक लोग भी आजतक अनभिज्ञ हैं; वह है भौतिक समृद्धि और खोज पर ही खुद को सीमित कर लेना । वैज्ञानिकों ने आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण किया ही नहीं । उन्हें अपनी अस्तित्व और चेतना के विराटता का बोध ही नहीं है । इस विषय पर न वे लोग कभी ध्यान दिए न किसी से चर्चा की । परिणाम यह हुआ कि आज विश्व के सर्वाधिक उन्नत चेतना अत्यधिक क्षुद्र चेतना का गुलाम बनकर गौरवान्वित महसूस कर रहा है । ध्यान रहे ! सिर्फ भौतिक वस्तुओं का अन्वेषण, निरीक्षण और अध्ययन विश्लेषण धीरे–धीरे हमारी अंतसचेतना के सूक्ष्म प्रवाह को भौतिक जड़ता की ओर प्रवाहित करने लगता है । जिसे हम आसानी से महसूस नहीं कर पाते । और जब दुर्घटना फलित हो जाता है तब कोई आइंस्टीन पश्चाताप करता है । मरने से पूर्व अलबर्ट आइंस्टीन ने कहा, “अगर मुझे पता होता कि मेरी सृजनात्मकता की निष्पत्ति, मेरे जीवन भर के काम की निष्पत्ति अणुबम होगी तो मैं कभी भौतिकविद होता ही नहीं । और अगर मेरे लिए दूसरा जन्म होगा तो मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि मुझे भौतिकविद बनाने के बजाय एक प्लंबर बना दे ।” इसे कहते हैं, “वह हानि जो अच्छे लोग पहुंचाया करते हैं ।”
वैज्ञानिक बुद्धि के लोग अब तक खुद की चेतना को इनकार करते आ रहें हैं । ध्यान रहे, पंडे, पुरोहित, मौलबी और पादरी उस ईश्वर में अंधविश्वास करते हैं, जिसे उन्होंने कभी देखा नहीं; और वैज्ञानिक स्वयं पर ही अविश्वास करता चला जाता है । यहाँ दोनों ही अंधविश्वास के प्रचंड सागर मे हिलोरे ले रहे हैं । जरा सोचिए, यदि हमारे भीतर कोई चेतना नहीं हैं तो फिर पदार्थ, प्रकृति और जीवन के रहस्यों को खोजने वाला कौन है ? इस बिंदु तक विज्ञान वही पुराने, अंधविश्वासी ढंग से व्यवहार करता रहा है । यह महा विध्वंसक द्विधाग्रस्त अवस्था है । कृष्ण गीता मे छाती ठोककर कहते हैं, “संशय आत्मा विनश्यति !” अर्थात संशय से घिरा हुआ व्यक्ति अपना ही विनाश कर लेता है । अतः जब तक वैज्ञानिक अपने स्वयं के अंतःस्थल का आयाम नहीं खोलता तक वह संपूर्ण दृष्टि से वंचित ही रहेगा । वह आंशिक ही रहेगा, उसका दृष्टिकोण हमेशा सत्य के आधे भाग को ही देखेगा । जो सदासर्वदा के लिए दुर्घटना कारक होगा ।

भारत पाकिस्तान बटबारे के दौरान लाखों लोगों को मौत के घाट उतरवानेवाला कोई दो कौड़ी का आदमी नहीं था । भारत के समग्र नागरिक के आस्था और श्रद्धा के केंद्र महात्मा गांधी थे । भक्ति रस के संतो ने भारत में ऐसी भक्ति रस के सागर को इस तरह प्रवाहित किया कि यहां हट्टे कट्टे युवा भी तारणहार भगवान भरोसे खुद को मुठ्ठी भर अतातायियों के आगे शरणागत होना स्वीकार कर अपनी और अपने वंशो का समूल विनाश को प्राप्त कर भक्त शिरोमणि कहलाने में गौरवान्वित होने लगे । डा. भाभा चाहते तो भारत को एटमी ऊर्जा का भंडार बना सकते थे, परंतु विश्व शांति के प्रतीक्षा में खुद भी दुर्घटना का शिकार हुए और भारत को भी पराश्रित छोड़ गए । “सबका साथ सबका विकास और सबका विश्वास” के नए शब्दों के जंगल में पुराने भावों को समेटते हुए अपने लोगों से अधिक जिस वर्ग को प्रेम देने चले थे और जिसका मसीहा बनने चले थे २४ के चुनाब ने उस गांधीवादी विचारधारा को लात मारकर खारिज कर दिया । लेकिन ये जो, महान बनने का भूत सवार है, सर्वमान्य बनने का जो सूक्ष्म अहंकार है; इससे कितने लोग आहत होते आए हैं कभी इसपर भी चिंतन करके देखिए, फिर आपकी महानता दो कौड़ी का भी नहीं रह जाएगा ।

जब तक विज्ञान ध्यान को अन्वेषण की प्रामाणिक विधि की तरह स्वीकार नहीं करता, तब तक उसका हर अनुसंधान अधूरा खोज ही रहेगा । ध्यान के लिए मन के पार जाने की क्षमता चाहिए, एक परम विशुद्ध शून्यता; जहां से परम रहस्यों के द्वार खुलते हैं जो प्रकृति के गोद में छुपे अनंतानंत रहस्यों को उद्घाटित करता है । ध्यान रहे ! विज्ञान अपनी अधूरेपन के कारण ही खतरनाक होता जा रहा है । वह बड़ी आसानी से मृत्यु की सेवा में लग गया है, क्योंकि वह चेतना में विश्वास नहीं करता, वह जड़ पदार्थ में विश्वास करता है । तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि नागासाकी की दुर्घटना हुई या हिरोशिमा की दुर्घटना हुई या पूरी पृथ्वी ही आत्मघात क्यों न कर ले । इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि सभी कुछ जड़ पदार्थ है, चेतना है ही नहीं । कुछ भी खोता नहीं है । जब सब मिट्टी ही है; तो कौन मरता है और कौन मारता है, इसका कोई मूल्य नहीं । उधर राजनीतिक और व्यापारिक लोग अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए भेडि़ए की तरह झपट्टा मारने को तैयार बैठा है । किसी को अपनी सत्ता सुरक्षित रखने के लिए कोरोना जैसी बीमारी और राजनीतिक अराजकता फैलाकर जनता को मारना और त्रासित करना है; तो वहीं एक बहुत बड़ा समूह है व्यापारी और उद्योग पतियों का जिन्हें उक्त महामारी और विश्वयुद्ध में अपनी औषधि और अनेकानेक उत्पाद को बेचना है । और यह सब उन्हें अपनी जीवन चलाने के लिए नहीं करना है, बल्कि सबसे ज्यादा धनवान और शक्तिशाली बनाना है । अतः यह विचारणीय है कि वैज्ञानिक अब इन दुष्टों के खिलाफ खुद को खड़ा करने का साहस जुटाने का प्रयास करें ।

अतः, वैज्ञानिक इस बात का स्मरण रखे कि अब वह आत्म–विनाशक आणविक शस्त्रास्त्र राजनीतिकों के हाथों में सौंप रहा है । वह नये मनुष्य और नई मनुष्यता के विरोध में काम कर रहे है । वह अपने ही बच्चों के खिलाफ व्यवहार कर रहा है । वह सभी के लिए मृत्यु के बीज बो रहा है । अब समय आ गया है कि वैज्ञानिक इस बात को सीख ले कि किस चीज से जीवन को सहयोग मिलता है और किस चीज से जीवन नष्ट होता है । सिर्फ अपनी सुख–सुविधाओं और तनख्वाओं के लिए वे गुलामों की भांति या यंत्र–मानव की भांति युद्ध के लिए और एक अभूतपूर्व विनाश के लिए मेहनत न करते रहें । वैज्ञानिक की एक आध्यात्मिक खोज होनी चाहिए और उसके बाद एक क्रांतिकारी होना चाहिए । उसे राजनीतिकों के निर्देश का पालन नहीं करना चाहिए । उसे खुद तय करना है कि पर्यावरण के लिए क्या सहयोगी है; बेहतर जीवन के लिए, अधिक सुंदर अस्तित्व के लिए क्या सहायक हो सकता है । और अगर राजनीतिक उसे बलपूर्वक मौत की सेवा में नियुक्त करते हैं तो वह उनकी भर्त्सना करे । उसे सभी जगह पूरी तरह से इनकार कर देना चाहिए–सोवियत संघ में, अमरीका में, चीन में, दुनिया के प्रत्येक देश में । वैज्ञानिकों का एक अपना जागतिक संगठन होना चाहिए जो इस बात का निर्णय करे कि कौन से अनुसंधान किए जाने चाहिए और कौन से छोड़ देने चाहिए ।

जिस प्रकार एक दिन वैज्ञानिकों ने धर्म और उसके आदेशों के खिलाफ विद्रोह किया, अब फिर से एक बार उन्हें विद्रोह करना है–राजनीतिकों और उनके आदेशों के खिलाफ । वैज्ञानिकों को स्वतंत्र रूप से खड़े होना है और इस बात को साफ समझ लेना है कि अब वे अपना शोषण नहीं होने देंगे । हर कहीं उनका शोषण हो रहा है । सिर्फ इसलिए कि उन्हें बड़े–बड़े सम्मान मिलते हैं, नौबल पुरस्कार मिलते हैं– वे अपने नौबल पुरस्कार के लिए इन सब निरर्थक पुरस्कारों के लिए पूरी मनुष्यता का बलिदान देने को तैयार हैं ! अब उन्हें ये बचकानी हरकतें छोड़ देनी होंगी । ये पुरस्कार और ये इनाम और ये प्रतिष्ठित ओहदे, ये सब उन्हें मूर्ख बनाकर बहलाने के लिए हैं ।
राजनीतिक पार्टियों के दलालों के कारण विक्षुब्ध और आक्रोशित कुछ टेक्निकल विद्वानों ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ही सभी राजनीतिक दलों और नेताओं का खुलकर विरोध किया था । अमेरिका में महामंदी के दौरान ‘टेक्नाटो’ में शामिल व्यक्तियों के जिस समूह ने काल्पनिक संसार का सपना देखा था उसकी गूंज आज भी अमेरिका की सिलिकॉन वैली जैसी जगहों में सुनाई देती है । प्रथम विश्व युद्ध ने अर्थव्यवस्था के एक बड़े दौर की शुरुआत की, जिसका अंत एक नुकÞसान और अचानक घाटे के साथ हुआ. जिसे ‘१९२९ का क्रैश’ कहा जाता है । जब दुनियाभर के वित्तीय बाजÞार धराशायी हो गए, आधी दुनिया की अर्थव्यवस्था डूब गई और लाखों लोग बेरोजÞगार हो गए । जिसका पूरा श्रेय तात्कालिक राजनेताओं को जाता है । हलाकि हम आज भी उसी दुनियां में जीने को मजबूर हैं ।

परंतु ‘इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजÞेशन एजÞ टेक्नोक्रेटिक यूटोपिया’ के लेखक स्टीफिÞक कहते हैं, कि टेक्नोक्रेटिक आंदोलन की प्रतिक्रिया बहुत तेजÞ थी । उनका मानना था कि टेक्नोक्रेसी पूंजीवाद और राजनीति पर नियंत्रण कर सकती है, इसे खÞत्म कर सकती है । इसमें कोई शक नहीं कि टेक्नाटो की काल्पनिक दुनिया कभी नहीं बनी, लेकिन टेक्नोक्रेट आंदोलन यानी वैज्ञानिकों और बुद्धिजीवियों का वो समूह, जिन्होंने १९३० और १९४० के दशक में इस ‘अभूतपूर्व दुनिया’ का सपना दिखाया था, उनके इस आंदोलन के सदस्यों की संख्या पांच लाख से भी अधिक थी । टेक्नोक्रेट्स का मानना था कि आधुनिकता और तकनीकी प्रगति ने नए अवसर पैदा कर दिए हैं, लेकिन इस विकास और आधुनिकता ने बड़े पैमाने पर बेरोजÞगारी, पर्यावरणीय गिरावट, असाध्य रोग, जनसंख्या वृद्धि और असमानता जैसी नई सामाजिक समस्याओं को भी जन्म दिया है । इस आंदोलन के संस्थापक, हॉवर्ड स्कॉट के अनुसार, लोकतंत्र ने बहुत से नाकाबिल लोगों को सत्ता तक पहुंचाया है, जिन्होंने गÞलत निर्णय लिए हैं जो सामाजिक और मानवीय बर्बादी के कारण बने । उनका मानना था कि इसका हल विज्ञान में है । इस नई तकनीकी दुनिया पर इंजीनियरों और विशेषज्ञों को शासन करना चाहिए था, जो रोजÞमर्रा की समस्याओं के लिए वैज्ञानिक सिद्धांतों को सख्ती से लागू करेंगे । इस आंदोलन के प्रशंसकों में एचजी वेल्स जैसे साइंस फिक्शन लिखने वाले लेखक भी थे । कनाडा के जोशुआ हलडरमैन नाम के एक कायरोप्रैक्टर (एक ऐसा व्यक्ति जो मानता है कि बहुत सी बीमारियां तंत्रिका प्रवाह में हस्तक्षेप के कारण होती हैं) ने १२९३६ से १९४१ तक इस आंदोलन का नेतृत्व किया । हालांकि वे आखिर में निराश होकर दक्षिण अफ्रीका चले गए थे, लेकिन उनका पोता, जो १९७१ में पैदा हुआ था, आज मंगल ग्रह पर एक टेक्नोक्रेसी बनाने का सपना पूरा करने में लगा है । ये अमेरिकी टेक्नोलॉजी कंपनी टेस्ला, स्पेस कंपनी स्पेसएक्स और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर के मालिक एलन मस्क हैं ।

सामाजिक और आर्थिक समानता में विश्वास के कारण, या अधिनायकवाद और लोकतंत्र को खÞत्म करने की इच्छा की वजह से, इस आंदोलन ने खÞुद को कम्यूनिजÞम, समाजवाद, फÞासीवाद, नाजÞीवाद, उदारवाद, रूढि़वाद, और निश्चित रूप से पूंजीवादी व्यवस्था यानी उस समय की सभी ‘विचारधाराओं’ के खिÞलाफÞ बताया था । असल में, आंदोलन के सदस्यों को किसी भी राजनीतिक दल से संबंध रखने से मना किया गया था । टेक्नोक्रेसी आंदोलन के नेता हावर्ड स्कॉट का कहना था कि “विज्ञान का शासन होगा ।” हावर्ड स्कॉट ने १९१९ में न्यूयॉर्क में वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के एक समूह के साथ मिलकर एक ‘तकनीकी गठबंधन’ की स्थापना की थी, जो केवल कुछ ही वर्षों तक चला, लेकिन बाद में टेक्नोक्रेटिक मूवमेंट के नाम वाले आंदोलन की स्थापना की गई । ये विचार १९३३ में टेक्नोक्रेसी इनकॉर्पोरेशन में बदल गए, इस आंदोलन को तब से इसी नाम से जाना जाता है । इसकी स्थापना उत्तरी अमेरिका में समाज, राजनीति और अर्थव्यवस्था में क्रांतिकारी सुधारों को बढ़ावा देने के लिए एक अकादमिक और शोध संगठन के रूप में की गई थी ।
अतः अब समय आ गया है, कि हम लोग भी अपनी अपनी स्तर और क्षमता के अनुसार इन दुष्ट राहु केतुओं से खुद को और भावी संतति को सुरक्षित करने का प्रयास करें । मैं चाहूंगा कि हर प्रांत के सभी विश्व विद्यालय सारे उपकुलपतियों और ख्याति प्राप्त प्राध्यापकों की परिषद आयोजित हो । जो प्रतिष्ठित बुद्धिजीवी वर्ग है, जो कि विश्व विद्यालय में काम नहीं कर रहा होगाः कलाकार, कवि, लेखक, उपन्यासकार, नर्तक, अभिनेता, संगीतज्ञ उन्हें भी आमंत्रित किया जाए । उसमें प्रतिभा के सारे आयाम और वे सारे लोग सम्मिलित होंगे जिन्होंने कुछ योग्यता दिखाई हो, राजनीतिकों को सर्वथा छोड़ कर ।

ध्यान रहे ! राजनीतिकों के पास जो भी ताकत है वह हमारी दी हुई है । हम उसे वापस ले सकते हैं । वह उनकी ताकत नहीं है, वह हमारी ताकत है । हमें सिर्फ उसे वापस ले लेने का उपाय खोजना है । क्योंकि देना बहुत आसान है, लेना थोड़ा कठिन है । जब तुम उनसे ताकत छीन लोगे तो वे इतने सरल और निश्छल नहीं होंगे जितने उस वक्त थे जब उसे तुमसे मांग रहे थे । वह हमारी ताकत है, लेकिन भीड़ अगर उसे उन्हें ही सौंपती रही तो वह उन्हीं के पास रहेगी । भीड़ को किसी भी बात के लिए राजी किया जा सकता है । यह बुद्धिजीवियों का काम है । मैं कहना चाहूंगा कि अगर मनुष्य–जाति को कुछ हो गया तो पूरे बुद्धिजीवी वर्ग को धिक्कार होगाः “तुम क्या कर रहे थे ? अगर वे बेवकूफ दुनिया को खत्म करने पर तुले हुए थे तो तुम क्या कर रहे थे ? तुम सिर्फ बड़बड़ाते रहे, शिकायत से भरे रहे; और तुमने कुछ भी नहीं किया ।” हम हिजड़े माने जाएंगे । हमारी संतति हम पर थूकगी । जिस प्रकार मुगलों और अंग्रेजों के गुलामी को लेकर आज के युवा, गांधी जैसे को घृणा भरी निगाहों से देख रहे हैं ।

अजय कुमार झा
लेखक

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