कोजगरा व्रत आश्विन शुक्ल पूर्णिमा अर्थात् शरत् पूर्णिमा को मनाया जाता है । और शरत् पूर्णिमा का सनातन धर्म में खास महत्व है । यह दिन हिन्दू धर्म में बहुत ही शुभ माना गया है । हिंदू मान्यताओं के अनुसार, अश्विन महीने में आने वाली पूर्णिमा को ‘जागरण की रात’ के रूप में जाना जाता है और ऐसा माना जाता है कि भक्तों को आशीर्वाद देने के लिए माँ लक्ष्मी स्वयं धरती पर उतरती हैं । कहा गया है कि इस दिन जो भक्त जागकर माँ लक्ष्मी की आराधना करते हैं तथा जो भक्त अत्यंत भक्ति के साथ पूजा अनुष्ठानों का पालन करते हैं उन्हें देवी से समृद्धि, धन और दिव्य आशीर्वाद मिलता है ।
मान्यता है कि कोजगरा की रात को चन्द्रमा से अमृत की वर्षा होती है । इस रात को चन्द्रमा से जो प्रकाश निकलती है उससे पूरी धरती प्रकाशमय हो जाती है । धरती माता के इस दिव्य छटा को समीप से देखने के लिए सभी देवता मृत्युलोक से धरती पर उतर आते हैं । कहा यह भी गया है कि कोजगरा की रात माँ लक्ष्मी कमल आसन पर विराजमान हो धरती पर आती हैं और देखती हैं कि कौन उनकी प्रतीक्षा में जागरण कर रहा है तथा कौन है जो सो गया है । साधारण शब्द में कहे तो कोजागरा का शाब्दिक अर्थ है – कौन जाग रहा है ? जो माँ की प्रतीक्षा में जाग रहा है उसे माँ सबकुछ देकर नेहाल कर देती है ।
मिथिलांचल में कोजगरा का विशेष महत्व है । इस पावन दिन को विवाह के पहले वर्ष में बहुत ही धुमधाम के साथ मनाने की परम्परा रही है । मिथिला में चार चीजें दही, माछ, पान आ मखान कहीं और नहीं मिलता है । यहाँ तक की स्वर्ग में सबकुछ मिल जाएगा मगर मखान नहीं मिलेगी । वैसे पान और मखान का मिथिलांचल में विशेष महत्व है । शायद ही कोई पर्व त्योहार हो जिसमें पान और मखान का प्रयोग नहीं किया जाता हो ।
अब कोजगरा की बातें तो जिनके घर में इसबार बेटी की शादी हुई है तो उन्हें भार भेजना होगा लड़के वालों के यहाँ । और लड़के वाले इस भार का इंतजार करते हैं । वैसे तो भार में बहुत कुछ भेजा जाता है लेकिन खास बात मखान को लेकर ही होती है । कोजगरा में खासकर मखान ही बाँटा जाता है । हाँ कभी कभी जब बेटी का ससुराल बहुत दूर होता है तो लड़के वाले खुद ही सारा इंतजाम करते हैं ।
विवाह के पहले वर्ष में कोजगरा बहुत धुमधाम से मनाया जाता है । वैसे तो समय के साथ बहुत कुछ बदला है जैसे अब पहले के जैसे मिट्टी के घर आंगन नहीं रह गए हैं तो जैसा है उसी को साप सुथरा कर चावल के आटे से अरिपन बना कर उस पर सिंदुर लगाते हैं । काठ की पीढ़ी रखी जाती है । जिस पर नया दुल्हा बैठता है । घर की बड़ी दादी, माँ, काकी, और भाभियां सभी दही ,दुभ ,धान आदि एक डाला में रखकर नये दुल्हे के सर पर धीरे से रखती हैं और चुमावन करती हैं । दुल्हे को छाता दिया जाता है । छाता पर मखान छिंटा जाता है और लोग मखान चुनते हैं । उसके बाद श्रेष्ठजन द्धारा दुर्वाक्षत दिया जाता है, आशीर्वाद दिया जाता है ।
कोजगरा के दिन में एक खेल भी खेला जाता है । इस खेल को कौड़ी कहा जाता है । यह कौड़ी नवविवाहिता के मायके से आता है । कौडी चाँदी से बना होता है । इसी कौड़ी से नव वरवधु अपने समवयस्कों के साथ खेलते हैं । इस समय हँसी ठिठोली तथा गीतनाद भी होते हैं । सभी विध विधान संपन्न होने के पश्चात् महिलाएं नव वरवधु को भगवती घर ले जाती हैं । वहाँ दोनों माँ भगवती से आशीर्वाद लेते हैं । वैसे यह भी कहा गया है कि कोजगरा में नई बहु ससुराल में नहीं रहती हैं । कहा गया है कि दुल्हे के चुमावन को दुल्हन को नहीं देखना चाहिए । ऐसे में दुल्हे का छोटा भाई या कोई बच्चा दुल्हन की जगह पर बैठता है । वैसे समय के साथ इस नियम में भी बदलाव आया है अब प्रायः बहुए ससुराल में ही रहती हैं और जब चुमावन की विधि होती है तो वो वहाँ नहीं रहती है । ये सब विधि विधान के समाप्त होने पर घर आए मेहमानों को खाना खिलाने का चलन है साथ ही पान,सुपाड़ी, मखान,मिठाई, आदि दिया जाता है ।
मैथिल समाज में विशेषकर ब्राहम्ण आ कायस्थ में कोजगरा मनाया जाता है । इस समाज में कोजगरा मनाने क प्रचलन कब से शुरु हुआ है ये नहीं कहा जा सकता है । इतना कहा जा सकता है कोजगरा परा पुराकाल से लेकर अभी तक सभी उतनी ही नियम निष्ठा से मनाते आ रहे हैं । अभी भी जनकपुर के जानकी मंदिर में १०८ भार पहुँचाया जाता है । महोत्तरी रतौली के स्वर्गीय ब्रहदेव ठाकुर जी के घर से हर बार १०८ भार जिसमें फलफूल, मिठाई, दही, चुरा और मखान सहित जानकी मंदिर में पहुँचाया जाता रहा है । करिब सौ वर्षो से इसी घर से कोजगरा का भार आता रहा है । आज के दिन भारत से भी बहुत से लोग जानकी मंदिर में दर्शन के लिए आते हैं । आज की शाम जानकी मंदिर में विशेष पूजा अर्चना की जाती है । व्यस्तता के इस समय में उम्मीद करें कि आने वाले दिनों में भी इसी आस्था और विश्वास के साथ कोजगरा को मनाएं ।