“संघ का विजयादशमी उद्बोधन 2024- निहितार्थ” : प्रवीण गुगनानी
प्रवीण गुगनानी, विदेश मंत्रालय में सलाहका। आज भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का माप, ताप, व्याप, आलाप, अनुलाप इतना है कि संघ के विचार को विश्व के प्रमुख सत्ता केंद्र भी सुनना, समझना और मथना चाहते हैं। संघ क्या कह रहा है ? उसकी योजना क्या है ? उसका मंतव्य और गंतव्य क्या है ? वर्ष भर में दो-तीन ही ऐसे अवसर होते हैं जिनसे यह समझने का प्रयास किया जा सकता है। इस दृष्टि से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वोच्च अधिकारी, सरसंघचालक जी का दशहरा उद्बोधन एक महत्वपूर्ण अवसर है।
इस वर्ष विजयदशमी उत्सव में संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन राव जी भागवत के साथ भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व अध्यक्ष डॉ. कोपिल्लिल राधाकृष्णन मुख्य अतिथि के रूप में थे।
राष्ट्र में मातृशक्ति की चैतन्यता, जागरण, उत्थान, विमर्श की दृष्टि से संघ लगभग प्रतिवर्ष किसी महत्वपूर्ण नारी व्यक्तित्व को लेकर समाज जागरण करता है। विगत वर्ष इस दृष्टि से हमारी जनजातीय नायक वीरांगना दुर्गावती पर संघ ने अपने वर्ष भर के महिला विमर्श के कार्यक्रमों को केंद्रित किया था। यह वर्ष देश की एक आध्यात्मिक किंतु सर्वोत्कृष्ट शासनकर्ता, लोकमाता, पुण्यश्लोक महारानी अहिल्याबाई का तीन सौवां जन्म जयंती वर्ष है। देश भर में होने वाले अपने कार्यक्रमों को अहिल्या बाई पर केंद्रित करने की दृष्टि से सरसंघचालक जी ने कहा – “देवी अहिल्याबाई एक कुशल राज्य प्रशासक, प्रजाहितदक्ष कर्तव्यपरायण शासक, धर्म संस्कृति व देश की अभिमानी, शीलसंपन्नता का उत्तम आदर्श तथा रण-नीति की उत्कृष्ट समझ रखने वाली राज्यकर्ता थीं”।
यह वर्ष भारत हेतु कुप्रथाओं, कुरीतियों से मुक्तिदाता दिलाने वाले आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती जी की 200 वीं जन्मजयन्ती वर्ष भी है। स्वामी दयानंद ने विदेशी आक्रमणों के कारण भारतीय समाज में आ गई सामाजिक व्याधियों का समुचित अध्ययन करके उनसे देश को मुक्ति दिलाने की दिशा में एक बड़ा आध्यात्मिक आंदोलन चलाया था।
संस्था चाहे कोई भी हो अपने आयोजनों में किसी अन्य संस्था के प्रसंगों को जोड़कर अपनी लाइन छोटी नहीं करना चाहती है। संघ इसके ठीक विपरीत है। संघ, हिंदू समाज के सभी गौरव बिंदुओं में स्वयं को विलीन कर देना चाहता है व इस अनुरूप ही आचरण भी करता है। संघ अपनी सौवीं जयंती में वर्ष भर, बंगाल की ‘सत्संग’ संस्था की सौंवीं जयंती को समूचे देश में अपने कार्यक्रमों, दैनिक स्मरण, आयोजनों, बैठकों, कार्यशालाओं में मनायेगा। ‘सत्संग’ की स्थापना प्रसिद्ध बंगाली महापुरुष अनुकूल चन्द्र ठाकुर ने की थी।
भारत के चारित्र्य मापदंडों को ऊँचा करने, साहित्यिक दृष्टि को विकसित करने, सांस्कृतिक अस्मिता को जीवित रखने, विदेशी आक्रांताओं के कारण समाज में आई ही बुराइयों से समाज को मुक्ति दिलाने में बंगाल का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। कभी देश भर में ‘भद्र बंगाल’ माने जाने वाले बंगाल के वैचारिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, राजनैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक महापुरुषों का स्मरण करने से, समूचे देश के वैचारिक जागरण व पुनरुत्थान की दिशा हमें स्वमेव मिल जाती है। सरसंघचालक जी ने बंगाली नायक परमपुज्य श्री अनुकूल चन्द्र ठाकुर का स्मरण व कृतज्ञता ज्ञापन किया।
भारत के वन्य समाज व नागर समाज में कभी कोई भेद-विभेद नहीं रहा है। दोनों ही समाजों ने एक दूसरे के पूरक भाव से परस्पर आवश्यकताओं की पूर्ति, परस्स्पर सम्मान, परस्पर मेल-जोल को बनाये रखते हुए देश के चहुँमुखी विकास में अपनी भूमिका निभाई है। आज देश में चारों ओर ‘दलित विमर्श’ के नाम पर या जनजातीय हितों के नाम पर विदेशी शक्तियाँ समाज विभाजन का वातावरण उत्पन्न कर रहीं हैं। इन विदेशी विचारों को उत्तर देने हेतु हमारे समक्ष सबसे बड़ा नाम जनजातीय नायक, भगवान बिरसा मुंडा का है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के इस सर्वोच्च मंच से भगवान बिरसा मुंडा की 150 वीं जयंती वर्ष को भी वर्ष भर उत्सवपूर्वक मनाने व उनके विचार को अपने वैचारिक प्रतिमानों में और अधिक सुसज्जित रूप से स्वीकार्य करने हेतु समाज के समक्ष आग्रह रखा गया है। भगवान बिरसा मुंडा से भी बड़ा उनका विचार था, जिसे उलगुलान के रूप में उन्होंने हमारे देश को दिया था। आज की आधुनिक परिस्थितियों के अनुरूप ही भगवान बिरसा के ‘उलगुलान’ को राष्ट्रीय नीतियों में स्थापित करके हम उनके इस 150 वीं जन्म जयंती को मनायेंगे, ऐसा संकल्प भी संघ के इस मंच से उद्घोषित हुआ।
मंच से भारत में होने वाली अवैध घुसपैठ व उसके कारण उत्पन्न जनसंख्या असंतुलन, अवैध घुसपैठियों के संदर्भ में भी चिंता व्यक्त की गई व एक सुदृढ़ ‘नागरिकता नियम’ की आवश्यकता का भान देश को कराया गया।
तेज़ी से बदलते विमर्शों या नरेटिव्ज़ के वर्तमान विमर्श में अपने देशज विमर्श को ‘डीप स्टेट’, ‘वोकिज्म’ ‘कल्चरल मार्क्सिस्ट’ से बचाये रखने में आज की पीढ़ी की आवश्यकता की भी चर्चा की गई। व्यक्तव्य से यह तथ्य भी उभरा कि – “समाज में जातिगत विघटन उत्पन्न करना, चिरंतन सामाजिक मूल्यों को ध्वस्त करना, श्रद्धा व आस्था को समाप्त करने वाले इन नये नरेटिव्ज़ को समाप्त करने में अपनी वैचारिक शक्ति को जागृत रहना होगा”।
देश के बालवृंद, किशोरों व युवा पीढ़ी को परोसे जा रहे ‘वैचारिक एसिड्स’ की चर्चा भी हुई। मोहनराव जी ने कहा कि हमारा राष्ट्र ‘मातृवत् परदारेषु’ के सुदृढ़ आचरण वाला एक सांस्कृतिक राष्ट्र रहा है। संस्कृत के इस सूक्त “मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्, आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पंडितः”.का आशय है – जो व्यक्ति समाज में अपनी पत्नी को छोड़कर शेष नारी समाज को अपनी मां की तरह, दूसरे के धन को मिट्टी के समान, और सभी प्राणियों को अपने जैसा ही मूल्यवान समझता है, वही सच्चा पंडित यानी ज्ञानी है। नई पीढ़ी के प्रति बड़ी विस्तृत चिंता व्यक्त की गई। बच्चों व युवाओं की हथेलियों को जकड़ लेने वाले मोबाइल से मिल रहे दुराग्रहों, दुराचरण आदि की दुश्चिंताओं को भी व्यक्त किया गया।
देश में उभरते कट्टरपन की चर्चा में बाबासाहेब अंबेडकर की यह बात उन्हीं के शब्दों में कही गई कि – “यह तो अराजकता का व्याकरण (‘Grammar of Anarchy’) है। यही कट्टरपन देश में विभिन्न हिंदू उत्सवों की शोभायात्राओं पर पत्थर बरसाता है व सामाजिक सौहाद्र को छिन्न-भिन्न कर देता है।
सामाजिक समरसता की घोर आवश्यकता पर बल देते हुए संघ प्रमुख ने कहा कि “एक दूसरे के सामाजिक उत्सवों में सम्मिलित होने, सभी समाजों के महापुरुषों को राष्ट्रीय नायक मानने से, परस्पर आयोजनों-उत्सवों में सम्मिलित होने से, परस्पर मान्यताओं व श्रद्धा को अपना मानने से ही सामाजिक समरसता की स्थापना हो सकेगी। सामाजिक समरसता को केवल सांकेतिक कार्यक्रमों से करने के आडंबर की अपेक्षा अपने व्यक्तिगत आचरण में स्थापित करना चाहिये। परस्पर साहित्य, संस्थान, सोच, किवदंतियों, श्रद्धा, आस्था को सम्मान देने के राष्ट्रीय चरित्र को विकसित करने के संकेत इस संभाषण में स्थान-स्थान पर मिलते हैं।
पर्यावरण, पौधारोपण, जलीय सरंचनाओं की शुद्धता व रक्षा, जल का सीमित उपयोग, सिंगल यूज प्लास्टिक का निषेध आदि का आग्रह भी किया गया। नागरिक अनुशासन, नागरिक कर्तव्यों का कड़ा अनुशीलन, देश भक्ति के भाव में आकंठ डूबे आचरण का आग्रह भी किया गया।
स्वदेशी उत्पादनों के प्रयोग, देशज उद्योगों, उद्यमों, उद्यमियों, श्रम के आदर का विषय भी विस्तार से आया। भाषा, भूषा, भजन, भवन, भ्रमण और भोजन अपना हो, अपनी परम्परा का हो यह ध्यान रखना – यह ही सारांश में स्वावलंबन विकसित करने वाला स्वदेशी व्यवहार है।