बांग्लादेश में यह क्या हो रहा है ? : वृषेश चन्द्र लाल

वृषेश चन्द्र लाल, जनकपुरधाम, हिमालिनी अंक नवंबर 024 । किसी क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले निश्चय ही विशिष्ट होते हैं । खासकर उस क्षेत्र में जिसके लिए उन्हें उनकी विज्ञता के लिए नोबेल पुरस्कार से मंडित किया गया है । लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं कि वे हर क्षेत्र में, हर विधा में अथवा जिस किसी भी कार्य में उतना ही प्रवीण, जवाबदेह तथा दृष्टिपूर्ण होंगे और अपनी जिम्मेदारी को बड़ी ही कौशल से पूरी कर लेंगे । इसका प्रत्यक्ष प्रमाण अभी बांग्लादेश में देखा जा रहा है । बांग्लादेश सरकार के प्रमुख सलाहकार डा. मोहम्मद युनुस के कार्यकाल में बांग्लादेश की हालत लगातार खिसकती जा रही है ।

राजनीतिक उठापटक का कारक तत्व

बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के परिवार को शिक्षा और नौकरी के क्षेत्र में दी गई आरक्षण से आक्रोशित छात्र आंदोलन और उसमें सत्ता परिवर्तन चाहने वालों की उकसाहट से हिंसा, प्रदर्शन, अराजकता और सैकड़ों लोगों की मौत के बाद चुनी हुई शेख हसीना की सरकार से ५ अगस्त, २०२४ को सत्ता छीन ली गई थी । लोकतंत्र में लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता परिवर्तन का होना स्वाभाविक और लोकतांत्रिक मान्यता के अनुकूल ही है । लोकतांत्रिक सरकार को जनता के आगे झुकना भी चाहिए। शेख हसीना झुकी भी थीं । आरक्षण हटा लिया गया था। लेकिन असंतुष्टि बढ़ती ही गई तो उन्होंने आगे खून-खराबे रोकने के लिए देश छोड़ना ठीक समझा । अन्य कोई विकल्प भी नहीं था । शेख हसीना का बहिर्गमन कोई बहुत ही अनहोनी घटना नहीं थी । लेकिन समझने की बात यह है कि उस घटना के पीछे ‘बांग्लादेश’ के विरोधी थे। वे लोग जो १६ दिसम्बर १९७१ के बाद भी बांगलादेश नहीं पूर्वी पाकिस्तान को बने रहना देखना चाहते थे । वे और उनके वारिस इस सत्ता परिवर्तन के असली कारक हैं ।

स्वतन्त्रता के बाद भी अस्थिर और संघर्षपूर्ण रही स्थिति

हरेक क्रान्ति के बाद प्रतिक्रान्ति के दुष्प्रयास शुरू हो जाते हैं। प्रतिक्रान्तिवादी और प्रतिक्रियावादीयों का पूरा प्रयास होता है कि जनता के पक्ष में जो भी प्रगतिशील व सकारात्मक परिवर्तन हुए हैं, उन्हें उलट दिया जाए। क्रान्तिकारीयों को इससे लड़ना होता है और यह लड़ाई जितनी मजबूत होती है परिवर्तन उतना ही टिकाऊ होता है । अगर क्रान्ति अथवा परिवर्तन के बाद भी हम अपने अजेंडा/कार्यसूची पर अडिग नहीं रहते हैं और जितना ही जनता की संगठित शक्ति कमजोर पड़ती जाती है उतना ही उसी अनुपात में प्रतिक्रान्तिवादीयों का दुष्प्रयास सफल होते जाते हैं । प्रतिक्रान्तिवादी विभिन्न भेष में सक्रिय रहते हैं । कहीं भ्रष्टाचारी अवसरवादीयों के भेष में तो कहीं वे परिवर्तन के विरुद्ध निराशा फैलाने वाले बहुरुपियों के भेष में घूमते रहते हैं । स्थायी सरकार अर्थात नौकरशाही और हथियार धारी सुरक्षाकर्मी तथा फौज भी अधिकतर अवस्था में परोक्ष रूप से इन्हें ही सहयोग करते रहते हैं क्योंकि परिवर्तन से सबसे अधिक नुकसान इन्हीं को होता है। क्रान्ति के बाद नई व्यवस्था को पूर्ण समर्थन कहीं-कहीं अपवाद स्वरूप ही मिलता है । बांग्लादेश में भी यही हुआ । जब पूर्वी पाकिस्तान था तो बहुत ही बड़ा तबका सारे संसाधनों पर काबिज था। फौजी शासन के तहत पूर्वी पाकिस्तान में भी फौज का बोलबाला होना स्वाभाविक ही था ।

१९७१, २६ मार्च के दिन शेख मुजीबुर्र रहमान ने बांग्लादेश की घोषणा की थी । १६ अगस्त, १९७१ को भारतीय फौज के सहयोग से पाकिस्तान से मुक्ति वाहिनी को जीत हासिल हुई थी । बांग्लादेश स्वतन्त्र होकर नये जीवन में प्रवेश कर चुका था । परन्तु यह महान परिवर्तन शासन में रहे फौज और मजे में रहनेवाले नौकरशाही के लोगों को तथा सुविधा व उच्चता से रह रहे सामंतों एवं अन्य कुनबों को पसंद नहीं था। और तुरन्त ही प्रतिक्रान्ति की खिचड़ी पकनी शुरू हो गई थी। शेख मुजीबुर्र रहमान सभी से मिलकर देश चलाने की कोशिश कर रहे थे। धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद उनका वैचारिक स्तंभ था। वे धर्म के नाम पर देश और राजनीति में विश्वास नहीं करते थे जैसा कि पाकिस्तान में स्थापना काल से ही होता रहा। पाकिस्तान के समर्थकों को उनकी यह बात भी खलती गई। शेख मुजीबुर्र रहमान भी अपने समर्थकों तथा मुक्ति वाहिनी के नेताओं में फैलती अनुशासनहीनता और अराजक आचार को रोक नहीं पाए जिसका लाभ उनके विरोधियों को मिला और भीतर ही भीतर स्थिति षडयन्त्रपूर्ण होती ग ई।

१५ अगस्त १९७५ के दिन अचानक प्रतिक्रान्तिवादीयों ने सेना की मदद से सैन्य तख्ता पलट के तहत शेख मुजीबुर्र रहमान और ढाका में रहे उनके परिवार के सभी सदस्यों की हत्या कर दी । यह तख्ता पलट मेजर सईद फारूक रहमान, मेजर खंडकर अब्दुर रशीद और मेजर सरीफुल हक दलीम के नेतृत्व में हुआ था । खंडकर मुश्ताक अहमद के हाथ में राष्ट्रपति पद और वास्तविक शासन सेना के नियंत्रण में चला गया था । प्रतिक्रान्ति अक्सर सत्ता संघर्ष और अस्थिरता-अराजकता में बदल जाती है । झेलना जनता को पड़ता है । शेख मुजीबुर्र रहमान की हत्या के बाद यही बांग्लादेश में हुआ । १९७५, नवम्बर ३ के दिन ब्रिगेडियर जनरल खालिद मुशर्रफ ने तख्ता पलट कर दिया जो ४ दिन बाद कर्नल अबू ताहेर के तख्ता पलट के बाद मारे गए । और फिर २१ अप्रैल १९७७ को मेजर जनरल जियाउर्र रहमान ने तख्ता पलट कर शासन अपने हाथ में ले लिया । ३० मई १९८१ को उनकी भी हत्या कर दी गई और अब्दुस सत्तार राष्ट्रपति बने । फिर १ वर्ष बाद ११ मई १९८२ में जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद तख्ता पलट कर राष्ट्रपति बने । इस तरह हम देख सकते हैं, सत्ता पर नियंत्रण के इस खूनी खेल से बांग्लादेश वासियों को क्या कुछ भोगना पड़ा । स्थिति बिगड़ती गई । लोग गरीब होते गए। कानून व्यवस्था लगातार नीचे गिरती गई।

लोकतन्त्र की बहाली और शेख हसीना का कार्यकाल

आठ साल बाद जनता जागी तो ६ दिसम्बर, १९९० को जनरल इरशाद को पद से इस्तीफा देना पड़ा और देश में आम चुनाव हुआ । १९९१ के आम चुनाव के बाद खालिदा जिया देश की प्रधानमंत्री बनीं । १९९५ के आम चुनाव में अवामी लीग की जीत हुई और शेख हसीना प्रधानमंत्री बनीं, जबकि २००१ के आम चुनाव में बीएनपी की नेता खालिदा जिया के पक्ष में रहा । २००६ से २००८ तक अस्थिरता रही लेकिन २००८ के चुनाव के बाद से शेख हसीना की अवामी पार्टी लगातार चुनाव जीतती रही ।

शेख हसीना के कार्यकाल में बांग्लादेश का उल्लेखनीय विकास हुआ । खासकर २०१४ से २०२४ तक के उनके कार्यकाल में आर्थिक विकास के राह में विभिन्न चुनौतियाँ एवं कोविड की महामारी के धक्का के बावजूद बांग्लादेश का आर्थिक विकास दर ६ से ८% के बीच देखी गई । मूल्य वृद्धि ५% के करीब रही जो अन्य विकासशील देशों से कम था । २०२३ में बांग्लादेश का बिजली उत्पादन ८०.४ TWh (टेरावाट-घंटे) तक पहुंच गया था । जून २०२२ तक देश की स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता २५,७०० मेगावाट थी । यहाँ बिजली का उत्पादन मुख्य रूप से प्राकृतिक गैस से होता है, इसके बाद कोयला और सौर तथा पवन जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत आते हैं । ५ करोड़ से अधिक लोग गरीब से मध्यम वर्ग में पहुँचे । २००६ में जहाँ बांग्लादेश में ४१.५% लोग गरीबी रेखा से नीचे थे, २०२२ के तथ्यांक में यह १८.७% में आ गए । उनके समय में विदेशी मुद्रा भण्डार २० बिलियन डॉलर के करीब था । देश भर के सभी ४५५४ परिषदों में डिजिटल केंद्र स्थापित किए गए थे जो आम जनता को सरकार, व्यापार, सामाजिक सेवा व अन्य संबंधित सूचनाओं पर जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, भाषा, ऑनलाइन व्यक्तिगत विवरण, इंटरनेट आदि पर पहुँच प्रदान करते थे ।

अगर पाकिस्तान से ही तुलना करके देखा जाए तो पाकिस्तान का आर्थिक विकास दर २०२४ के लिए अधिकतम ३.२%  प्रेक्षित किया गया है । विदेशी मुद्रा भण्डार ११.१७ बिलियन डॉलर के करीब है । पाकिस्तान के २१.९% लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं । पाकिस्तान में मूल्य वृद्धि ७.२% है । इन सामान्य तथ्यांकिकी से हम समझ सकते हैं कि बांग्लादेश तेजी से अपने क्षेत्र में एक आर्थिक शक्ति के रूप में विकसित हो रहा था जो आर्थिक रूप से शीर्ष पर रहे देशों को खल रहा था । पाकिस्तान को तो कुछ अधिक ही खलना स्वाभाविक ही था । भारतीय उपमहाद्वीप के भारत और बांग्लादेश का आर्थिक रूप से तीव्र गति से विकसित होना और चीन का अमेरिका के प्रतिस्पर्धी रूप में स्थापित होना, ताकतवर एशिया का संकेत है जो भविष्य में विश्व की सुरक्षा प्रणाली में अग्रणी और नेतृत्व दायी भूमिका निभा सकता है । भारत से बांग्लादेश का भगिनी संबंध और तालमेल भी विश्व शक्तियों में खलबलाहट मचा रहा था । भारत को नियंत्रित रखने के लिए कमजोर और दकियानूसी बांग्लादेश ही उन सभी के लिए उपयुक्त है । अभी जो बांग्लादेश में हो रहा है अधिकतर इन्हीं कारणों से हो रहा है । चीन को भी इस सार को समझना चाहिए । बांग्लादेश या अन्य किसी माध्यम से भारत को घेरने या अस्थिर करने के प्रयास से चीन को लाभ नहीं हो सकता । मजबूत चीन और भारत ही एशिया को व्यापारिक केंद्र के रुप में स्थापित कर सकते हैं और वैश्विक शक्ति संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका में ला सकते हैं । इसके लिए दक्षिण एशिया में स्थायी शांति और आपसी सद्भाव जरूरी है ।

दकियानूसी और सैन्य संलग्नता की तरफ बढ़ रहा है बांग्लादेश

शेख हसीना की निर्वाचित सरकार के विरुद्ध बलवा के बाद बांग्लादेश की बागडोर २००६ में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित मोहम्मद युनुस के हाथ में है । उन्हें यह पुरस्कार ग्रामीण बैंक की स्थापना तथा आर्थिक और सामाजिक विकास की नींव के लिए उनके प्रयासों के कारण मिला था । यह आश्चर्य की बात है कि अनियंत्रित और सच कहा जाए तो निश्चित नेतृत्व और एजेंडा के बिना विद्यार्थियों के विरोध प्रदर्शन को अराजक और लूटपाट के बलवा में परिणत कर जो पर्दे के पीछे से सत्ता पर काबिज हुए वे शांति के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हैं । उनके आने के बाद ऐसा लगा था कि अंतर्राष्ट्रीय रूप से सम्मानित इस व्यक्ति के नेतृत्व में बांग्लादेश और अधिक सहिष्णु और उदार लोकतंत्र की तरफ बढ़ेगा । आर्थिक नीतियाँ विकास की गति को और बढ़ाएंगी तथा जनजीवन आपसी सद्भाव के साथ शीघ्र सामान्य होता चला जाएगा । बंगाली समाज अपनी विशेषताओं के साथ एकजुट रहेगा ।

परंतु, उनके आते ही जिस तरह से हिंदुओं पर आक्रमण हुआ और अराजकता चरम पर जा पहुँची, उससे उनकी भी मानसिकता पर जबर्दस्त प्रश्न चिन्ह खड़ा हो गया है । पाकिस्तान, चीन व अन्य देशों से जिस तरह संबंध विकसित होते दिख रहे हैं, उससे शेख हसीना के विरुद्ध हुई बगावत में बड़ी और सोची-समझी साजिश के कथन की पुष्टि होती है । शेख हसीना ने बांग्लादेश के सीमा के भीतर एयरबेस बनाने देने का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था, जिसकी खुलासा उन्होंने किसी देश या व्यक्ति का नाम लिए बगैर खुद ही की थी । वह बांग्लादेश में किसी विदेशी सैन्य गतिविधि के खिलाफ थीं । शेख हसीना ने कई बार बांग्लादेश के बंदरगाहों पर विदेशी नौसैनिक जहाजों को डॉक करने की अनुमति तक देने से मना किया था । उदाहरण के लिए, उन्होंने अगस्त २०२२ में चीन निर्मित फ्रिगेट युद्धपोत पीएनएस तैमूर को चटगांव बंदरगाह पर डॉक करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था । २०१८ में नौसैनिक जहाज HMS Queen Elizabeth के साथ भी ऐसा ही हुआ था । लेकिन वर्तमान सरकार इसके ठीक उलट कर रही है, जो कल के दिनों में बांग्लादेश को और अधिक अस्थिरता और विदेशी हस्तक्षेप में घसीट कर ले जाएगी ।

हाल ही में बांग्लादेश के अटॉर्नी जनरल ने बांग्लादेश के संविधान के मूलभूत विशेषताओं को बदलने की बात की है । संविधान से ‘सेक्युलरिज्म’ को हटाया जाएगा । वे बांग्लादेश को इस्लामिक राज्य में परिणत करना चाहते हैं । बांग्लादेश निर्माण के लिए मुक्ति संग्राम लड़ने वाले शेख मुजीबुर्रहमान को राष्ट्रपिता के सम्मान से हटाने की बात भी प्रस्तावित की जा रही है । स्वतंत्रता संग्राम और मुक्ति वाहिनी से जुड़े लोगों को प्रताड़ित किया जा रहा है । अवामी लीग के नेताओं, पूर्व मंत्री, अफसर और जज, शेख हसीना से जुड़े हर शख्स को झूठे अपराध और मुद्दों में फँसाया जा रहा है ।

मो. युनुस आशा के उलट देश को अनुदारवाद और धार्मिक दकियानूसी में ढकेल रहे हैं । विरोधियों पर जिस तरह से दमन-चक्र चलाया जा रहा है, उससे लगता है बांग्लादेश में पाकिस्तानी तर्ज पर तानाशाही और अस्थिरता का भविष्य निर्माण किया जा रहा है । अगर यही हुआ तो मो. युनुस और उनके सहयोगी ही इसका पहला शिकार होंगे । अराजकता और अस्थिरता का खामियाजा बांग्लादेशियों को भुगतना ही होगा क्योंकि आर्थिक विकास की गति अब तेजी से धीमी होती जा रही है । सामाजिक विभाजन और विदेशी हस्तक्षेप के कारण आतंकवाद पनपने की भी उतनी ही आशंका है । विश्व को इसे गंभीरता से लेना चाहिए और बांग्लादेश में फिर से यथाशीघ्र लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए आवश्यक कदम उठाने चाहिए ।

वृषेश चन्द्र लाल

Source : https://www.himalini.com/189182/09/24/11/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%25ac%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%2582%25e0%25a4%2597%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b2%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25a6%25e0%25a5%2587%25e0%25a4%25b6-%25e0%25a4%25ae%25e0%25a5%2587%25e0%25a4%2582-%25e0%25a4%25af%25e0%25a4%25b9-%25e0%25a4%2595%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25af%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%25b9%25e0%25a5%258b