नवरात्रि आराधना की आध्यात्मिक रहस्य : प्रेमचन्द्र सिंह

प्रेमचन्द्र सिंह, लखनऊ, 7 oct,024 । शारदीय नवरात्रि का आगाज हो चुका है और नवरात्रि की उपास्य देवी माता की नौ रूपों के पीछे की विशिष्ट ज्ञान को जानने की चेष्टा करेंगे और यह भी समझने का प्रयास करेंगे कि देवी माता के नौ अवतारों से हमारा मानव जीवन का कितना सामिप्य और सरोकार है। शाक्य समुदाय में माता दुर्गा को ब्रह्म के निराकार (निर्गुण) स्वरूप का सगुण रूप माना जाता है और यह दुनियां का इकलौता ऐसा समुदाय है जहां ब्रह्माण्ड की उत्पति के पीछे की शक्ति को स्त्री के रूप में देखा जाता है। दुर्गा जी की उपासना का इतिहास बहुत पुराना है, इसकी चर्चा न केवल पुराणों में, आगम ग्रंथों में, बल्कि महाभारत तथा रामायण सरीखे ग्रंथों में भी माता दुर्गा का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद, अथर्ववेद, तैत्रीय, अरण्यक तथा देवी उपनिषद में भी देवी माता का जिक्र मिलता है।

सनातन धर्म में अवतारों की बात होती है जिसमे एक तरफ विष्णु के दशावतार प्रसिद्ध हैं, वहीं माता दुर्गा के नौ अवतार की आराधना होती है। विष्णुजी की दशावतार मानव के संपूर्ण क्रमानुगत उत्पत्ति और विकास को दर्शाते हैं। उनका प्रथम अवतार मत्स्य रूप दर्शाता है कि जीवन की उत्पत्ति समुद्र से हुई, दूसरा उनका कछुआ (कूर्म) अवतार दिखाता है कि समुद्र के पानी से जीवन जमीन पर आया, फिर जीवन बाराह अवतार में जंगली जानवर का रूप धारण किया, उसके बाद नरसिंहावतार प्रदर्शित करता है कि जंगली जानवर से मनुष्य की उत्पत्ति हुई, तत्पश्चात परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कलकी अवतार मनुष्य में बौद्धिक क्षमता के क्रमिक विकास और उसकी बढ़ती आकांक्षाओं को दिखाते हैं। विष्णु के इन अवतारों से मानव की उत्पत्ति और उसका बौद्धिक विकास का बोध होता है जबकि देवी माता के नौ अवतारों से स्त्री के व्यक्तिगत जीवन के विभिन्न पड़ावों के संबंध में जानकारी मिलती है। नवरात्रि के इस पुनीत अवसर पर माता देवी के नौ अवतारों के रहस्य को विस्तार से यहां समझने की कोशिश करते हैं : –

(1) शैलपुत्री

किसी भी स्त्री का पहला स्वरूप जन्मजात कन्या का स्वरूप होता है, वह किसी न किसी परिवार में जन्म लेती है। उस समय उसका अपना नामकरण नही होता है बल्कि परिवार या समाज में वह अपने मां बाप के नाम से ही जानी और पहचानी जाती है। इसी तरह माता देवी का प्रथम अवतार ‘शैलपुत्री’ है और अगर नाम पर ध्यान दिया जाए तो ‘शैल’ का अर्थ है ‘पर्वत’ और ‘पुत्री’ का मतलब ‘बेटी’ अर्थात ‘पर्वत की बेटी’। पर्वत उनके पिता का नाम है। माता का यह रूप नवजात शिशु का है, जो जन्म के तुरंत बाद मानव का प्रथम स्वरूप होता है। कोई भी शिशु जब पैदा होता है तो उसकी पहचान अपने नाम से नही होता है, बल्कि वह अपने माता या पिता के नाम से ही जाना जाता है। अभी देवी माता का अपना नाम नही है, वह अपने पिता के नाम से जानी जा रही हैं।  इस आधारभूत स्वरूप में देवी माता के केवल दो हाथ दिखाए गए हैं, एक हाथ में है त्रिशूल और दूसरे हाथ में है कमल। त्रिशूल विध्वंसक शक्ति और कमल सौम्यता (शिष्टता) का प्रतीक है। यह दर्शाता कि माता के बाल्यरूप में हथियार प्रयोग की शक्ति और विनम्रता तथा शांति की सामर्थ्य सूक्ष्म रूप से विद्यमान है। ज्योतिष शास्त्र की मान्यता है कि माता के ‘शैलपुत्री’ स्वरूप के पूजन से चंद्रमा से संबंधित दोष समाप्त होते हैं।

(2) ब्रह्मचारिणी

माता देवी के इस अवतार की तुलना एक विद्यालय जाने वाली शिशु कन्या से कर सकते हैं। शिशु शैलपुत्री अब थोड़ी बड़ी हो गई है और उनको सीखने की यह सही उम्र है। इस कार्य हेतु उनको स्कूल जाना है। कठिन अनुशासन और ब्रह्मचर्य का पालन करना है। इसलिए शिशु की इस रूप को ब्रह्मचारिणी कहते हैं। प्राचीन भारत में आश्रम धर्म के तहत शिशु कन्या का प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचारिणी का होता था और इसमे विद्योपार्यन हेतु पूर्ण ब्रह्मचर्य और कठिन अनुशासन का पालन करना होता था। इस ब्रह्मचर्य आश्रम में देवी माता को सफेद वस्त्र में दिखाया गया है अर्थात इस उम्र में भौतिकवादी आकर्षण से दूर त्याग और तपस्या के साथ ध्यान ज्ञानार्जन में लगाना है।

            उनके इस स्वरूप में उनके एक हाथ में कमंडल और दूसरे हाथ में माला है, जो उनके तपस्वनी स्वरूप को दर्शाता है। देवी माता की ब्रह्मचारिणी स्वरूप का यही तात्पर्य है। मान्यता है कि माता के ‘ब्रह्मचारिणी’ स्वरूप की पूजा से मंगल ग्रह के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

(3) चंद्रघंटा

विद्योपर्यण के उपरांत कन्या की यौवन अवस्था का यह स्वरूप है जो शादी के लिए तैयार है। यह स्वरूप किसी भी कन्या की सर्वाधिक सुन्दर और निर्मल होती है। ऐसे ही यह देवी माता की सबसे सुन्दर और संपन्न स्वरूप है। जहां पहले शैलपुत्री और दूसरे स्वरूप ब्रह्मचारिणी के केवल दो- दो हाथ है, माता के चंद्रघंटा स्वरूप में देवी माता के 8 हाथ हैं। उनके कुछ हाथों में शस्त्र सुशोभित है और अन्य हाथों में कमल, घंटा, कमंडल और पानी का कलश है। यहां पर देवी माता भक्ति और शक्ति से परिपूर्ण है। माता की इस स्वरूप की तुलना बालिका की पढ़ाई समाप्त होने के बाद उसके यौवन स्वरूप से की जानी चाहिए जिसमे नवयुवती में जीवन जीने की कौशल और कला आ जाती है और वह अपने सुखमय पारिवारिक जीवन के किसी भी मौका/ अवसर से लाभ उठाने और उसके लिए संघर्ष के लिए तैयार है।  इस स्वरूप में देवी माता के मस्तक पर तीसरी आंख भी खुल गई है अर्थात इस अवस्था में माता हर प्रकार के संघर्ष के लिए मानसिक रूप से तैयार और जागरूक है, देवी माता की शादी भी इसी स्वरूप में होती है। जिस प्रकार किसी भी युवा महिला की इसी परिपक्व और निर्मल स्वरूप के साथ व्याह होती है। माता के ‘चंद्रघंटा’ स्वरूप की पूजा से शुक्र ग्रह के बुरे प्रभाव दूर होते हैं।

(4) कुष्मांडा

हर शादीशुदा महिला शादी के बाद गर्भ धारण करती है। इसी को प्रदर्शित करने के लिए माता का कुष्मांडा अवतार है। कुसमांडा में कु का अर्थ है लौकिक (कॉस्मिक), ऊष्मा का अर्थ ऊर्जा और अंडा का अर्थ पिंड होता है अर्थात देवी माता अपने इस स्वरूप में लौकिक ऊर्जा के पिंड को अपने गर्भ में धारण करती है। मान्यता है कि जब अस्तित्व में कुछ नही था तो देवी माता ने ब्रह्माण्ड की रचना/उत्पत्ति इसी स्वरूप से की थी। देवी माता के इस स्वरूप की तुलना गर्भवती महिला से की जा सकती है जो अपने गर्भ में नए जीवन की रचना करने वाली है। देवी माता इस स्वरूप में एक मटका को लिए हुए है जिसमे अमृत/शहद है। सनातन पौराणिक कथाओं में मटका गर्भ का प्रतीक माना गया है। माता ‘कूष्मांडा’ के स्वरूप की पूजा से सूर्य के कुप्रभावों से बचा जा सकता है।

(5) स्कंदमाता

संतानोपत्ति के बाद महिला का यह पहली बार मां बनने का स्वरूप है। इसी को स्कंदमाता के अवतार में दर्शाया गया है। देवी माता अपने इस पंचम स्वरूप में स्वयं अपने प्रथम संतान स्कंद अर्थात कार्तिकेय की माता बन गई है, इसलिए देवीमाता के इस स्वरूप को स्कंदमाता कहते हैं। माता के इस मां स्वरूप की तुलना किसी भी गर्भवती महिला के मां बनने से की जाती है।

               इस स्वरूप में माता ममतामयी है और संतान के वात्सल्य से परिपूर्ण है, इसलिए देवी माता के इस स्वरूप में उनके हाथों में कोई शस्त्र नही दिखाया गया है। माता जी के गोद में उनका पुत्र स्कंद (कार्तिकेय) बैठा हुआ है। माता ‘स्कंदमाता’ के स्वरूप की आराधना बुध ग्रह के बुरे प्रभाव को कम करती हैं।

(6) कात्यायनि

किसी भी मां का यह साधना का स्वरूप है जो अपने संतान को बड़े ही धैर्य और सहनशीलता से पालन- पोषण करती है और अपने संतान पर आनेवाली किसी भी मुसीबत का सामना करने के लिए तैयार रहती है। इसी स्वरूप को देवी माता के कत्यायनी अवतार में प्रदर्शित किया जाता है। इसी रूप में देवी मां ने दानव महिशासूर का मर्दन किया था। जब महिला मां बन जाती है तो वह बहुत शक्तिशाली हो जाती है। वह अब अपना और अपने बच्चा के जीवन तथा उसकी सुरक्षा के लिए किसी अन्य पर निर्भर नही होती है, अब वह अपने और अपना बच्चा के जीवन के लिए स्वयं में पर्याप्त होती है। कभी- कभी मां के इस सर्वशक्तिमान स्वरूप को दिखाने के लिए उनके 18 हाथ भी दिखाए जाते हैं। संतान होने के बाद हर महिला ऐसे ही पूर्ण आत्मविश्वासी और शक्तिशाली हो जाती है। मान्यतानुसार माता कात्यायनी की उपासना से भक्तों को आसानी से धन, धर्म, काम और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

(7) कालरात्रि

किसी भी मां का यह भयंकर स्वरूप है जो अपने संतान की संकट से उसकी रक्षा के लिए वह धारण करती है और हर मुसीबत से निपटने के लिए पूर्णतः तैयार रहती है। इसी स्वरूप को देवी माता को कालरात्रि अवतार में दिखाया जाता है। मां के इस विकराल स्वरूप को काली भी कहा जाता है। कालरात्रि का दो अर्थ होता है, एक काली रात अर्थात प्रलय की रात और दूसरा अर्थ है काल को भी निगल जाने वाला। प्रलय लाने बाला काल को भी निगलने बाली मां का यह भयंकर स्वरूप है। इसी रूप में मां ने रक्तबीज के रक्त को पीकर उसको मार दिया था। यह दर्शाता है कि जहां एक ओर माता अपनी मातृत्व और ममता से संतान को जन्म देती है, उसका पालन पोषण करती है, वही दूसरी ओर उसकी रक्षा के लिए अपने मां के धर्म को निभाने के लिए रौद्र रूप भी ले सकती है। अगर उसमे ब्रह्मांड की रचना की शक्ति है, तो उसमे ब्रह्मांड के विनाश का भी सामर्थ्य है। अगर वह जन्म दे सकती है, तो वह मार भी सकती है। मान्यता है कि माता कालरात्रि की स्वरूप की पूजा करने से ब्रह्मांड की सारी सिद्धियों के दरवाजे खुल जाते हैं।

(8) महागौरी

स्त्री का घर परिवार ही उसका संसार होता है और वह अपने घर संसार के लिए जो भी करती है उसे वह अपने परिवार के प्रति दायित्व मानती है। हर महिला का यह गृहस्थधर्मा स्वरूप है और प्रत्येक महिला का यह पारिवारिक स्वरूप है। देवी माता इस अवतार में अपने पति शिवजी और दोनो पुत्र कार्तिकेय तथा गणेशजी के साथ बैठी है। माना जाता है कि माता ‘महागौरी’ की पूजा से राहु के बुरे प्रभाव कम होते हैं।

(9) सिद्धिदात्री

हर महिला का यह अंतिम स्वरूप उसके मृत्यु से पूर्व वृद्धावस्था का है जब उसको इस स्वरूप में उसे जीवन का पर्याप्त अनुभव हो जाता है। मां का यह स्वरूप अत्यंत दयाबान एवं करूणावान है। इस स्वरूप में हर मां अपने संतानों को हर प्रकार की सिद्धि की आशीर्वाद देती है, उनके स्वस्थ्य, सुखी और दीर्घायु जीवन की मंगलकामना करती है। इसी स्वरूप को देवी माता की सिद्धिदात्री स्वरूप के रूप में नौवा दिन उपासना करने की परंपरा है।  कहा जाता है कि माता ‘सिद्धिदात्री’ के स्वरूप की आराधना केतु ग्रह को नियंत्रित करती हैं।

शैलपुत्री महादेवी ब्रह्मचारिण्यष्टमी स्मृता।

  चंद्रघण्टा कूष्माण्डा च स्कन्दमाता च पञ्चमी॥

  कात्यायनी महादेवी कालरात्रिः महातपाः।

  महागौरी च सिद्धिदात्री नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः॥’

नवरात्रि के प्रत्येक दिन स्त्री शक्ति के एक एक स्वरूप की पूजा की जाती है, जो विभिन्न शक्तियों और गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इस अवसर पर हर सनातनी परिवार अपने परिवार के सभी सदस्यों खासकर अपने बच्चों को सिख देता है कि  किसी भी महिला से उनकी इन्ही नौ स्वरूप में ही आमना सामना हो सकता है और जब भी ऐसी स्थिति आए तो उनका आदर और सम्मान उसी तरह होना चाहिए जैसे नवरात्रि में उनके नौ अवतारों की आराधना की जाती है। इस पाठ को हर साल कम से कम दो बार ( शारदीय और चैत्र) नवरात्रि में अराधना के समय दुहराया जाता है। जो इस पाठ में सिद्धस्थ हो जाता है, उसके जीवन में विजयादशमी का आनंदोत्सव होता है।

प्रेमचन्द्र सिंह,
लेखक।
लखनऊ,

 इन्ही कोमल जज्बातों के साथ नवरात्रि की उल्लासपूर्ण उत्सव के पावन अवसर पर आप सभी स्नेहीजनों को मेरी दिली शुभकामनायें

Source : https://www.himalini.com/186834/06/07/10/?utm_source=rss&utm_medium=rss&utm_campaign=%25e0%25a4%25a8%25e0%25a4%25b5%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25a4%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25bf-%25e0%25a4%2586%25e0%25a4%25b0%25e0%25a4%25be%25e0%25a4%25a7%25e0%25a4%25a8%25e0%25a4%25be-%25e0%25a4%2595%25e0%25a5%2580-%25e0%25a4%2586%25e0%25a4%25a7%25e0%25a5%258d%25e0%25a4%25af%25e0%25a4%25be